भारतीय विज्ञान का कमाल
दिल्ली का लौह स्तंभ
दिल्ली का लौह स्तंभ
भारतीय इतिहासकार गुप्तकाल ह्यतीसरी शताब्दी से छठी शताब्दी के मध्यहृ को भारत का स्वर्णयुग मानते हैं। इस काल के वैभव का प्रत्यक्षदर्शी रहा है दिल्ली का लौह–स्तंभ। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल में बना यह स्तंभ खुले आकाश में 1600 वर्षों र्से मौसम को चुनौती देता आ रहा है और धातु–विज्ञान में हमारी उत्कृष्टता का ठोस प्रमाण हैं।
प्रकृति में लोहा मुख्यतः इसके अयस्कों के रूप में ही उपलब्ध होता है और इन अयस्कों को क़रीब 1000 डिग्री सेल्सियस तापमान तक पिघलाकर लोहा तैयार करना कम से कम उस समय तो कतई आसान काम नहीं था।
लौह–स्तंभ में लोहे की मात्रा करीब 98 प्रतिशत है और आश्चर्य की बात है कि अब तक इसमें जंग नहीं लग रही। इसका कारण जानने के लिए वैज्ञानिक अभी भी जुटे हुए हैं।
भारत में लोहे से संबंधित धातु–कर्म की जानकारी करीब 250 ई .पू .से ही थी। बारहवीं शताब्दी के अरबी विद्वान इदरिसी ने लिखा है कि भारतीय सदा ही लोहे के निर्माण में सर्वोत्कृष्ट रहे और उनके द्वारा स्थापित मानकों की बराबरी कर पाना असंभव सा है।
पश्चिमी देश इस ज्ञान में 1000 से भी अधिक वर्ष पीछे रहे। इंग्लैंड में लोहे की ढलाई का पहला कारखाना सन 1161 में ही खुल सका। वैसे चीनी लोग इसमें भारतीयों से भी २००–3०० साल आगे थे, पर लौह–स्तंभ जैसा चमत्कार वे भी नहीं कर पाए।